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धरा का पत्र मानव के नाम — मंजू शर्मा ‘मनस्विनी’

 

प्रिय मानव,

ढेर सारा स्नेह और शुभकामनाएँ।
आज एक खत के माध्यम से तुम तक पहुंचना चाहती हूंँ।
एक आस मन में संजोए।
मैं धरा, तुम्हारी जननी, तुम्हारा आधार। अनंत काल से मैंने तुम्हें प्रेम दिया, तुम्हें जीवन दिया, तुम्हारी हर ज़रूरत पूरी की। वायु, जल, अन्न, छाया, खनिज, और आश्रय सब कुछ निःस्वार्थ रूप से से तुझे उपलब्ध कराया।
लेकिन तुमने उनकी कद्र न जानी। सच कहते हैं जो आसानी से उपलब्ध होता है उसका महत्व, कम हो जाता है फिर चाहे
वो कोई भी व्यक्ति, वस्तु या वनस्पति ही क्यों न हो। वही व्यवहार तुम्हारा हो गया मेरे साथ।

सुनो, विवेकवान कहलाने वाले मानव, अब मैं थक चुकी हूँ, तुम्हारी ऊँची छलांग वाली दौड़ से… आधुनिकता की इस होड़ से… जानते हो तुम, मेरी नदियाँ सूख रही हैं, जंगल कट रहे हैं, आकाश धुएँ से भर गया है। मेरे आंँचल में पलने वाले जीवों की चीखें तुम तक नहीं पहुँचतीं, लेकिन मैं उन्हें हर दिन सुनती हूँ। तुमनें केवल मुझे संसाधन समझा, मुझसे लिया बार-बार, बेहिसाब, पर लौटाया बहुत कम।

मेरे आंँचल पर तुमने बेहिसाब प्रहार किया…हरियाली के लिए कहीं कोई कोना खाली नहीं छोड़ा है। बस ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएं ही नजर आती है। तेरे अथाह अत्याचार का
मैं रोज जहर पीती हूँ। प्लास्टिक, रसायन, ध्वनि,चारों तरफ फैली गंदगी….विकिरण के रूप में। मेरा सीना फाड़कर जब तुम खनिज निकालते हो, तब मुझे दर्द होता है। जब मेरे बच्चों जानवरों, पक्षियों, वृक्षों को मारते हो, तो मेरे कलेजे में चुभन होती है। काश, तुम समझ पाते इस पीड़ा को…तो कुछ देर थमकर बैठते मेरे पास…मेरी दशा को देखकर बदलते दिशा अपने मन की… तो तुम पूछते मुझसे, “कैसी हो माँ?”

लेकिन तेरे पास अभी भी समय नहीं ।
मैं चाहती हूंँ, भले मानुष…तुम अभी भी संभल जाओ।
मैं तुम्हें क्षमा कर सकती हूँ, यदि तुम सुधर जाओ।
मैं फिर से हरी-भरी हो सकती हूँ, अगर तुम मुझे थोड़ी साँस लेने दो। मैं फिर मुस्कुरा सकती हूँ, अगर तुम मेरे आकाश को साफ रखो, मेरी नदियों को बहने दो, मेरे जंगलों को जीने दो।
सिर्फ एक विनती है। विकास करो, पर विनाश नहीं।
विज्ञान का उपयोग करो विवेक के साथ। प्रकृति की खूबसूरती को बनाएं रखना है तो इसका हनन न करो।
सुनो मेरी बात…!

रो-रो कर कहती धरा, अब तो जग इन्सान।
मानवता ही धर्म है,,,,, नहीं बनो हैवान।।
दोहन करना छोड़ कर, करना खुद से मनन~
प्राणवायु है धरा, जननी अपनी मान।।

तुम्हारी जननी “धरा”

मंजू शर्मा ‘मनस्विनी’

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