मेरे गुजरात संस्मरण : आज हाथी नहीं आया लेखक :- राजेश कुमार ‘राज’

जब एक व्यक्ति अपने क्षेत्र और परिवेश सी निकल कर एक नए क्षेत्र या प्रदेश में पहुंचता है जहाँ की भाषा-बोली उसकी मातृभाषा से इतर होती है, तब उसे किन-किन भाषाकीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, आज का संस्मरण लेख उसी पर आधारित है.
बात सन १९८५ की है. मैं उस समय गुजरात राज्य के सौराष्ट्र अंचल के अमरेली शहर में पदस्थ था. अमरेली शहर अमरेली जिले का जनपद मुख्यालय भी था. मुझे गुजरात में आये हुए लगभग छः माह ही गुजरे होंगे. एक वरिष्ठ अधिकारी की तैनाती होने के कारण मुझे अपना कार्यालय-सह-आवास छोड़ कर शहर में अन्यत्र किराये के माकन में रहना पड़ा. मेरा यह आवास अमरेली शहर में नागेसरी रोड पर स्थित था. मकान मालिक पटेल समुदाय के एक ७०/७५ वर्षीय बुजुर्ग काका थे लेकिन उस वय में भी वह सज्जन शारीरिक रूप से सक्रिय थे और अपने खेतों में जी तोड़ मेहनत करते थे. तीन बेटों, बहुओं और पोता-पोतियों से युक्त उनका भरापूरा परिवार था. नागेसरी रोड पर सड़क किनारे ही उनका आवासीय संकुल था जिसमें वह परिवार सहित निवास करते थे. उनके खेत भी घर के पीछे ही थे. उनके आवास की पहली मंजिल पर मैं प्रबोध भाई रावल और कनु भाई साधू के साथ किराये पर रहने लगा था. हमारे साथ वाले कमरे में रसीला बेन पटेल नाम की एक सद्गृहणी अपने पति किशोर भाई पटेल और दो बच्चों; एक बेटी, जिसका अब मुझे नाम याद नहीं आ रहा है और एक बेटे घनश्याम के साथ रहती थीं. उनके पति अमरेली शहर में कपड़ों की दुकान चलाते थे. रसीला बेन ने मुझे भाई माना था और मुझे भगिनी सम स्नेह दिया था. उनके दोनों बच्चे मुझे राजू मामा कहकर सम्बोधित करते थे. उनका निश्छल और निस्वार्थ प्रेम मुझे आज भी याद है. उन्हें याद करके मैं आज भी भावुक हो जाता हूँ.
अब मैं अपने असली विषय पर आ जाता हूँ. मकान मलिक काका अक्सर मेरे साथ बात किया करते थे. उनकी भाषा ठेठ कठियावाडी गुजराती थी जिसमें कुछ व्यंजनों का उच्चारण आम गुजराती भाषा से हट कर होता है. ‘स/श’ को ‘ह’ बोलना उसका एक उदाहरण है. यूँ तो मैं गुजराती भाषा समझ लेता था और कुछ-कुछ बोल भी लेता था लेकिन इस विशिष्ट उच्चारण के कारण कभी-कभी समझने में गच्चा भी खा जाता था. बुजुर्ग माकन मलिक गुजराती भाषा में अक्सर कहा करते थे “आजे म्हारो हाथी न आव्यो तेथी म्हारे बधुं एकलाज कर्वुं पडयूँ. (आज मेरा हाथी नहीं आया इसलिए मुझे सब काम अकेले ही करना पड़ा)”. बाकि तो मैं सब कुछ समझ जाता था लेकिन ये हाथी वाली बात मुझे समझ नहीं आ रही थी. मैं अपने मन में विचार करता कि इनके खेत में मैंने कभी हाथी को काम करते हुए तो देखा नहीं लेकिन यह महाशय यदा-कदा हाथी के ना आने की कहानी मुझे सुना दिया करते थे. शर्म के मारे मैं किसी से पूछता भी नहीं था. लेकिन ये हाथी वाली पहेली मुझसे हल नहीं हो रही थी. हमारे मकान की बालकनी उनके खेतों की तरफ खुलती थी. अवकाश वाले दिन मैं खेतों में काम करने वालों पर नजर रखता था और इस इन्तजार में रहता था कि कब हाथी आयेगा और मैं उसे देखूंगा. लेकिन हाथी तो कभी आया ही नहीं. मेरी अधीरता बढ़ती ही जा रही थी. एक दिन मैंने अपने रूम पार्टनर प्रबोध भाई रावल से पूछ ही लिया कि क्या माकन मलिक काका के खेत में कोई हाथी काम करने आता है? उसने ठहाका लगाया और बोला, “इस इलाके में खेतिहर मजदूर को ‘साथी’ बोलते हैं. चूँकि सौराष्ट्र के कठियावाड के लोग ‘स/श’ का उच्चारण ‘ह’ करते हैं इसलिए माकन मलिक काका ‘साथी’ को ‘हाथी’ बोलते है.” यह सुनकर मैंने अपना माथा पकड़ लिया कि यह छोटी सी बात मेरे जेहन में अब तक क्यों नहीं आई जबकि उच्चारण वाली यह बात मुझे भी पता थी. खैर यह जानने के बाद कि सौराष्ट्र में एक गरीब खेतिहर मजदूर को भी एक सम्मानपूर्ण संबोधन ‘साथी’ से बुलाया जाता है, मेरे मन में सौराष्ट्र के लोगों, वहां की संस्कृति और परम्पराओं के प्रति और अधिक गहन सम्मान बोध व्याप्त हो गया. मैं आज भी सौराष्ट्र और कच्छ में बिताये अपने समय को याद करके भावुक हो जाता हूँ. ऐसे भोले लोग बस सौराष्ट्र और कच्छ की धरा पर ही निवास करते हैं.