बरसाती नानी एक संस्मरण — शिखा खुराना ‘कुमुदिनी’

तीन दिन से आसमान ऐसे रो रहा था जैसे बादलों को भी कोई बचपन की कक्षा में फेल कर गया हो। टप-टप-टप-टप! खिड़कियाँ बंद, छतों पर नादान झरने, और गली-मोहल्ले गोया वेनिस की गलियों में तब्दील हो चुके थे।
मैं, एक होनहार छठी कक्षा की छात्रा, और मेरी दीदी—आठवीं की सीनियर, दोनों स्कूल नहीं जा पा रहे थे। घर में बैठ-बैठकर किताबों से ज़्यादा खिड़की के बाहर बहते पानी को पढ़ रहे थे।
चौथे दिन बादलों ने थोड़ी मेहरबानी की—जैसे बादलों की मम्मी ने डांट लगाई हो।”अब बंद करो ये रोना!”
हमने बरसाती निकाली, जूते पहने (जो बारिश में खुद नाव बन जाते थे) और निकल पड़े स्कूल की ओर। रास्ता नहीं, पूरा वाटर पार्क था! सड़क नहीं, झील! जूतों में “चप-चप” की जगह अब “बुप-बुप” की आवाज़ें आ रही थीं। मगर हम तो उस ज़माने के बच्चे थे, जब बारिश का मतलब ‘छुट्टी’ नहीं, रोमांच’ होता था।
मम्मी, जो पास वाले स्कूल में अध्यापिका थीं, वे भी अपने स्कूल निकल गईं—एकदम ‘मिशन बारिश 200X’ मोड में।
अब नानी जी का आगमन तय हुआ। सुबह ही उनका फोन आया:
“मैं आ रही हूँ मिलने। बच्चियों को लेकर चलूंगी, सब मिलकर घर चलेंगे!”
हम सब खुश, क्योंकि नानी मतलब—हिम्मत का दूसरा नाम!
(और खाने की थैली भी साथ लाती थीं!)
लेकिन… छुट्टी के वक्त फिर वही बादलों का ‘रोते हुए बदला’। इतनी ज़ोर की बारिश शुरू हुई कि सड़कें नहीं, समुद्र बन गईं। पानी घुटनों तक और हमारी हिम्मत गले तक।
स्कूल से बाहर निकलते ही लगा जैसे कोई रेस्क्यू मिशन शुरू हुआ हो।
अब आया रिक्शा वाला बाबू जी—जो शायद खुद सोच रहे थे कि “क्यों मैंने आज घर से निकलने की ग़लती की?”
बड़ी मिन्नतों के बाद तय हुआ कि वो हमें—चार लोगों को—रिक्शे में बैठाकर, जलमहल (मतलब घर) तक पहुंचाएगा।
रिक्शा चला… या कहें, तैरा।
बीच रास्ते में जब पानी गहराया, तो रिक्शा लहराया, झटका खाया… और फिर—धपाक!!
पूरा रिक्शा पलटा और हम सब—नानी, मम्मी, दीदी और मैं—अपने बोरिया-बिस्तर समेत, हौले से तैरने लगे।
किसी ने पूछा होता—”कौन सी नहर में तैरना सीखा?”
तो हम कह सकते थे—”गली नंबर तीन, स्कूल रोड पर!”
नानी जी—जैसे किसी पुरानी फिल्म की नायिका—हिम्मत से उठीं, मम्मी को संभाला जो हल्की सी ‘मायूसी की मूर्ति’ बन चुकी थीं, और बोलीं:
“कोई बात नहीं, बेटियों! बारिश हमें हरा नहीं सकती।”
और हम? हम हँसते-हँसते ऐसे लोटपोट हो रहे थे जैसे कॉमेडी सीन की शूटिंग हो रही हो! जूते पानी में बह रहे थे, किताबें गीली हो चुकी थीं, लेकिन हम… जीत गए थे उस बरसात से। घिसटते, भीगते, हँसते, थके हारे जब घर पहुँचे तो ऐसा लगा जैसे वॉर जोन से लौटे सिपाही।
अब भी जब वो बारिश की बूंदें गिरती हैं, तो हम मुस्कुरा उठते हैं।
क्योंकि वो एक बरसाती दिन नहीं था, वो एक याद थी, जो आज भी सबसे गीली तस्वीर बनकर दिल में बसी है।
शिखा खुराना ‘कुमुदिनी’