फिर सुबह होगी — डॉ इंदु भार्गव जयपुर

सर्दी की वह कड़ाके की रात थी। जयपुर की सड़कों पर कोहरा इस क़दर छाया था कि सामने से आता आदमी भी धुंध में गुम हो जाता। एक फुटपाथ के कोने में, चादर में लिपटी एक बूढ़ी औरत, अपनी सूखी आंखों में उम्मीद की लौ जलाए बैठी थी। उसका नाम था , “श्यामा”
श्यामा कभी एक शिक्षक थी—एक स्कूल में बच्चों को हिन्दी पढ़ाया करती थी। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। एक हादसे में उसके इकलौते बेटे की मौत हो गई, और पति पहले ही दुनिया छोड़ चुके थे। घर बिक गया, रिश्तेदारों ने मुंह मोड़ लिया, और एक दिन वह खुद को इसी फुटपाथ पर बैठा पाया।
वह रोज़ सड़क के उस पार के स्कूल को देखती थी। जहां बच्चे हंसते, दौड़ते, बस्ते टांगते आते-जाते। उनकी हँसी श्यामा के दिल में चुभती भी थी और मरहम भी बनती थी।
एक शाम, एक छोटी सी बच्ची नेहा स्कूल से लौटते हुए उसकी ओर आई और पूछा,
“दादी, आप रोज यहां क्यों बैठती हैं?”
श्यामा मुस्कुराई, “ताकि तुम्हें स्कूल जाते देख सकूं।”
नेहा ने फिर पूछा, “क्या आप मेरे साथ पढ़ाई करेंगी? मम्मी कहती हैं कि अकेले पढ़ने में मन नहीं लगता।”
श्यामा की आंखें भर आईं। “मैं तुम्हें पढ़ा सकती हूं,” वह धीमे से बोली।
उस दिन के बाद, नेहा हर शाम स्कूल के बाद श्यामा के पास आती, अपनी कॉपियां खोलती और पढ़ाई करने लगती। कुछ ही हफ्तों में आस-पास के झुग्गियों के बच्चे भी जुड़ने लगे। फुटपाथ पर एक छोटी-सी “क्लास” बन गई।
मीडिया की नजर पड़ी, खबर बनी – “फुटपाथ की गुरु माँ”, और फिर सरकार की भी। एक समाजसेवी संस्था ने श्यामा के लिए एक छोटा-सा शेल्टर और लाइब्रेरी बना दी। वही बच्चे, जिनके लिए श्यामा बस एक सड़क के कोने पर बैठी बूढ़ी औरत थी, अब उन्हें “मास्टर जी” कहकर पुकारते।
कई साल बीत गए।
एक दिन श्यामा की आंखें बंद हो गईं—शांति से, सुकून से, इस दुनिया को अलविदा कहते हुए। लेकिन उसकी बनाई वो पाठशाला अब भी चल रही है। बच्चे अब किताबें लेकर आते हैं, सीखते हैं, और हर दिन, वहां एक दीवार पर लिखा दिखता है
“फिर सुबह होगी”
क्योंकि श्यामा जानती थी, अंधेरी रात कितनी भी लंबी हो…
सुबह ज़रूर होती है।
डॉ इंदु भार्गव जयपुर