बीते क्षण की कसक — अरविंद शर्मा अजनवी

वो बिल्कुल पास थी मेरे,
नहीं छू पा रहा था मैं।
शब्द भी मौन थे फिर भी,
बहुत कुछ गा रहा था मैं।
मेरा मन कह रहा था कि,
उसे बाँहों में अब भर लूँ,
लगा कर सीने से उसको,
मैं दिल की बात सब कह दूँ।
अगर बाँहों में भर लेता ,
तो क्या कहती वो धीरे से?
गिरता सर से जो आँचल,
तो क्या हँसती वो धीरे से?
वो कहती, बाँवरे हो क्या!
नहीं ये ठौर सपनों का!
मैं कहता, प्राण मेरी सुन,
यही है सार जीवन का।
नयन से नयन जब टकराते,
समय तब ठहर सा जाता,
जो लट गाल पर गिरते,
मुझे बंधन सा वह भाता!
हवा कुछ कह रही होती,
और धीरे से वो मुस्काती,
बाहर शांति बसी दिखती,
पर उर में आग सी लगती।
मैं सोचूँ, उँगलियाँ उसकी
हथेली में फिसलती जो,
वो कहती, अब बहुत हुआ!
लबों पर हँसी मचलती जो।
मैं कहता एक पल ठहरो,
यह क्षण, फिर लौटता कब है?
वो कहती, प्रीत अब पावन,
बंधी जो लोक-लाज है।
न कहा कुछ भी खुलकर,
न कोई मिलन का वादा,
मगर हृदय की लहरों में,
अधूरे स्पर्श की है ज्वाला।
वो निकट थी,मैं अकेला था,
गगन धरती से रूठा था,
यहाँ तो छाँह है केवल,
वहाँ पर धूप का साया।
वो थोड़ी देर में उठकर,
सहेली के साथ में चल दी,
मैं देखा रह गया पीछे,
सोचता क्यों न कुछ कह दी?
मगर हर पग जो उसके थे ,
कुछ मुझसे कह रहे जैसे,
अब स्मृति शेष है केवल,
पर प्राण बसे हैं उस पल में।
अरविंद शर्मा अजनवी